हर साल दो चार साल
विस्फोट.
बेक़सूर की मौत.
राजकीय निवेदन की झड़ियाँ ....
' बेपरवाह है केंद्र सरकार'
'बेअसर है राज्य सरकार'
'विस्फोट तो विश्व में सर्वत्र'
'पाकिस्तान में तो हर रोज'
'मुंबई की जनता
बहादुर
या मजबूर?
दुसरे ही दिन
स्लो फ़ास्ट भरसक ट्रेन,
सब यथावत,
समंदर में जैसे पत्थर गिरा...
पल में धमाका अद्रश्य....
जाए कहाँ जनता मजबूर ?
जहाँ रोटी,
वहाँ खोली,
जाए तो जाए कहाँ?
रोज मुंह सवेरे उठना,
ब्रश-कुल्ला,गरमागरम चाय,
दो टंबलर इधर उधर, स्नान.
सुखी भाजी,कोरी रोटी का टिफिन लेकर दौड़ना,
७.०३ की विरार फ़ास्ट पकड़ना,
चाहे हुआ विस्फोट उसी ट्रेन में,कल शाम,
उसी झवेरी वाड में रोज जाना....
रात दस बजे,
खोली में.
ऊपर मच्छर,नीचे मांकड़,बगल में चूहा,
गम का घूंट, वादापाऊं का खाना,
भाई भाभी के साथ खोली में सोना....
फिर मुंह सवेरे......
जीना यहाँ,मरना यहाँ,
जाए कहाँ?
मजबूर मुंबई,बेचारी
फिर राह देखे,
अधीरता से
एक और विस्फोट की!
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