Sunday, May 20, 2018

निषाद - वर्तमान समय की समस्याओं के खिलाफ़ प्रतिभाव : गुजराती से समीक्षा स्तम्भ


     
              
भाग १ - प्रास्ताविक

योगानुयोग कैसा है !धीरुभाई परीख और कविलोक के सामने मैं बुधसभामें सर पटकता रहता था,१९८२-८३ में धीरुभाई दलित कविता को कविता नहीं मानने पर उतारू थे.कारण?......दलित कविता की बुनियाद में पडी  हर तरह के प्रस्थापित मूल्यों के खिलाफ़ विचार भिन्नता,विचारभेद.पर १९८८-८९ में 'कांचनार' बंगलो में विश्व  कविता केंद्र में उन्होंने खुद पहल कर के मुझ से कविता माँगी. कारण ? वैचारिक भेद हो,तो भी काव्यत्व से भरी कृति को कविता कहना ही उचित होता है,ऐसा बीते हुए पांच-छह साल के दरमियान धीरुभाई मानने लगे थे.और मैं ने अपनी 'मुन्ह्सवेरा होता है' कविता उन्हें दी.इसके साथ धीरुभाई ने समीक्षा-स्तम्भ भी माँगा था.उस वक्त मैं प्रवीण गढवी का काव्यसंग्रह 'बेयोनेट' पढ़ रहा था,इसलिए मैं ने 'बेयोनेट' पर लिखनेका वादा किया और निभाया.अपनी वह कविता और वह समीक्षा-स्तम्भ एक भी अक्षर की कटौती किये बगैर छपे 'कविलोक' में, और इस तरह बुधसभाकी दलित कविता से जो छूआछूत थी,वह दूर हुई.इसमें 'बेयोनेट' एक माध्यम,एक निमीत्त बना इस बात की मुझे खुशी है.

फिर प्रवीणजी की कविताओं का हरीश मंगलमने किया हुआ संकलन-संपादन 'दलित  वाणी'' प्रकाशित हुआ.'दलित अधिकार ने एम्.जे.पुस्तकालय के सभागार में वक्तव्य का कार्यक्रम तय किया.वक्ताश्री को आख़री वक्त प्रतिकूलता निकल आई.बहुत ही कम समय में मुझे 'दलित वाणी' पर बोलने का अवसर मिला.वह समीक्षा भी छपी 'दलित अधिकार' में.

कवि प्रवीण गढवी के साथ मेरी रूहानी रिश्तेदारी जरुर ही बहुत मजबूत रही होगी,सो उन की कविता के बारे में लिखनेका तीसरा अवसर भी मुझे उपलब्ध हो ही गया.फिर उनका पांचवा काव्य संग्रह छपा : 'निषाद'.दलित साहित्य अकादमी ने  गुजराती साहित्य परिषद् के गो.मा.त्रि.सभाखंड में इस संग्रह के लोकार्पण का कार्यक्रम आयोजित किया.उस में   एक वक्ता ने आक्रोशभावन्यूनता और गांधी प्रशस्तिकाव्य के सन्दर्भ में 'निषाद' से निराशा व्यक्त की.मैं ने भी 'निषाद' पढ़ा था.मेरे दिल में तो ऐसी कोई निराशा नहीं हुई थी.मैं ने उस वक्ता को ध्यान से सुना था.मेरा दिल मचल पडा प्रतिवाद करने.कवि प्रवीण गढवी से जो रूहानी रिश्तेदारी थी,उछल पड़ी.मैं ने 'निषाद' पर वक्तव्य देना तय कर लिया.इसलिए पिछले तीन साल से  गांधीनगर में 'दलित साहित्य विमर्श मंच' के उपक्रम से हर मास आयोजित कार्यक्रम में 'निषाद' पर बोलना मैं ने स्वीकार किया.और इस तरह प्रवीणभाई जैसे वरिष्ठ और बलिष्ठ कवि की कविता के बारे में तीसरी बार समीक्षा करनेका सुखद और आनंददायक अवसर मुझे मिला.

भाग दो - 'निषाद' की कविताएँ 

प्रवीण गढवी के 'निषाद' में मुझे सब से ज्यादा पसंद आई 'श्रमिक पार्वती' कविता.(पृ.२३) 'कुमारसंभवम' की सध्यस्नाता पार्वती के कपाल से टपक कर नाक पर से ठोडी से होकर स्तनउभार के बिच से सरक कर नाभि में समाये जलबिंदु ने कई कवि,चित्रकार और शिल्पिओं को आकर्षित किये हैं.श्याम साधू जैसे कवि ने तो नाभि में समाया जलबिंदु यानी वह स्वयं.ऐसा दावा भी किया है,क्यों कि श्याम साधू मूलभूत रूप से सौन्द्र्यानुरागी धाराके कवि हैं.प्रवीण गढवी स्वयं 'निषाद' के अपने निवेदन में जिसे प्रतिबद्ध और समाजकेंद्री कहते हैं उस धारा के कवि हैं,इसलिए मार्क्सवादी संस्कारों से सींची उनकी नज़र गई श्रमिक औरत पर और उसके कपाल से टपकते प्रस्वेदसभररूप को उन्हों ने 'कुमारसंभवम' की सध्यस्नाता पार्वती के साथ सहोपस्थित किया.और इस तरह juxtapose कर के उन्हों ने बनाया श्रमिक पार्वती का चित्र.पार्वती के भाल से टपका हुआ जलबिंदु नाभि में समाया ऐसा climax कालिदास ने दिखाया है,तो कालिदास की कल्पना से भी आगे बढ़ कर प्रवीणभाई ने पराकाष्ठा ऐसे दिखाई है :
     ' मिल गया मातृदुग्ध में
       प्रस्वेद बिंदु,
       भूखी बच्ची
       सोख रही मातृदुग्धमिश्रित प्रस्वेद को '
prolateriate poet की कल्पना इसे कहते हैं !प्रचलित विषय को भी उन्हों ने निहायत अपूर्व रूप से रख दिया है और मजदूर संतान माता के दूध के साथ प्रस्वेद भी पीती हैं इस यथार्थ को भी पेश कर दिया है.
वही मार्क्सवादी संस्कार उन्हें प्रश्न करने प्रेरित करते हैं कि पवित्र चीज़ो की सूचि में 'प्रस्वेद' क्यूँ नहीं ?
      ' प्रस्वेद को पवित्र
       क्यों न
       कहा किसी मनीषी ने ? ' (पृ.६३)

प्रवीणभाई,विश्व के ईतिहास में एक मनीषी निकला कि जिसने मानवसमाज के लिए सब से अधिक मूल्यवान चीज़ के रूप में प्रस्वेद की याने कि मजदूर के श्रम की किमत लगाईं और वह मनीषी हैं कार्ल मार्क्स.मार्क्स ने प्रश्न किया कि उत्पादित चीज़ की सामग्री (material) तो वही की वही रहती है,तो फिर बेचते वक्त उसकी कीमत में बढौती क्यों होती है ? तो पण्य (commodity) की बढ़ती किमत (अतिरिक्त मूल्य )किसका  है ?जवाब उन्हों ने ही दिया कि मजदूर के श्रम का,कारीगर के कौशल्य का.और उन्हों ने theory of surplus value - अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत के द्वारा मानवजात को.उसके एक समूचे शास्त्र,अर्थशास्त्र को एक महाकठिन प्रश्न का उत्तर दिया,उस के आधार पर मानव समाज की एक पूरी अवस्था को व्याख्यायित किया.और एसा कर के उन्हों ने मानवीय चेतना को गढ़ती प्रवृत्ति, आर्थिक प्रवृत्ति के केंद्र स्थान में मजदूर के पसीने को रख दिया.उनके लिए कुछ भी पवित्र नहीं था,कुछ भी अपवित्र नहीं था.मगर दो घड़ी कल्पना करें कि वे धार्मिक परिभाषा में सोचते और बोलते होते तो यकीनन ही उन्हों ने पवित्र चीज़ो की सूचि में अग्रिम स्थान पर प्रस्वेद को ही रखा होता;.पूर्व और पश्चिम के बीच के तफावतों को आपने इसी संग्रह की अन्य दो कविताओं में अलग कर के दिखाए हैं.उस में काव्यशास्त्र,मनोविज्ञान,अर्थशास्त्र,कामशास्त्र,तत्त्वचिंतन-चित्र,नृत्य,संगीत,शिल्प जैसी ललित कला और स्थापत्य वगैरह क्षेत्र में पूर्व के मनीषी और पश्चिम के मनीषी के बिच विचारणा में कुछ बुनियादी फर्क हैं, इस के विषय में भी कुछेक कविताएँ लिखेंगें,प्रवीणभाई ? 

ऐसी ही सहोपस्थिति की प्रयुक्ति का उपयोग प्रवीणभाई ने किया है अभी अभी ही जिसका उल्लेख किया वह 'पृथ्वी के दो चेहरे'(पृ.३४) और 'पूर्व और पश्चिम' इन दो कविताओं में.भारत कुमार की 'पूरब और पश्चिम','उपकार'      श्रेणी की फिल्मों में तो पूर्व को महान दिखाया जाता है,पर जिनके मानव अधिकारों का स्वीकार आज भी नहीं होता है ऐसे दलित और औरत - नाना किस्म के स्थूल और सूक्ष्म बहिष्कृति,धिक्कार,तिरस्कार,उपेक्षा,अन्याय,अत्याचार,शोषण के शिकार बने हुए ये दो प्रजासमूह कैसे गा सकते है : 'है प्रीत जहाँ की रीत सदा' या ऐसा कोई गीत? अपनी पहचान दलितों के चारण (bard of dalit) के रूप में देनेवाले प्रवीणभाई ने पृथ्वी के पूर्व चेहरे की कुरूपबद्धता के सामने पश्चिम के सौन्दर्यमंडित,प्रफुल्लित चेहरे को उभार कर यथोचित रूप से ही पश्चिम को बढ़ कर बताया है 'पृथ्वी के दो चहेरे' कविता में और 'पूर्व  और पश्चिम' कविता में   
उसी रीति में गुजराती ने क्या क्या अपनाया है इसकी प्रलंब सूचि प्रस्तुत कर के मलेच्छ (मुस्लिम) और मलिन(दलित) का  उसने दिलसे स्वीकार नहीं किया है इसका दुःख व्यक्त किया है 'गिरा गुर्जरी' कविता में .(पृ.८९)
इसी प्रयुक्ति का कवि ने 'आप का शौक,हमारी मजबूरी' कविता में उपयोग कर के दलितों की मजबूरी को वाणी दी है.

व्यंग्य का भी बहुत अच्छा विनियोग किया है उन्हों ने 'कलिकाल'(पृ.२१),'हमारे पेट नहीं'(पृ.५३),'कबीर को'(पृ.७४) और 'अजब गजब यह देश मेरा'(पृ.८७) में.कलियुग और सतयुग की प्रचलित और प्रस्थापित व्याख्या और विभावना का शीर्षासन करा दिया है,सहज और सटीक तर्क द्वारा. 'कलिकाल' में.  'हमारे पेट नहीं','कबीर को' तथा 'अजबगजब यह देश मेरा' तो सम्पूर्ण व्यंग्य कविताएँ हैं.     
'न बोलें,तब तक अच्छे' में तथ्यों की सहोपस्थिति और व्यंग्य दोनों का उपयोग किया है कवि ने.
'गांधी और माओ'(पृ.१२) के बीच रहे साम्य और एक रीतिविरोध को अच्छी तरह उभारे हैं कवि ने.'मीरां को' में उन्हों ने मीरां रोहिदास शिष्या होने के बावजूद भी अतिशूद्र की पीड़ा की अनुभूति क्यों न हुई ऐसा प्रश्न कर के मीरां के व्यक्तित्व के एक विरोधाभास को उभारा है.
गीता में कृष्ण ने सूचि दी है (श्रेष्ठ की,पवित्र की) कि वृक्षों में मैं पीपल हूँ,महीनों में मैं पुरुषोत्तम हूँ,इसी रीति से किस में कौन अपवित्र (impure),निकृष्ट माना जाता है इसकी भी सूचि दी है,जिसमें सूचि की आखिर में,अंत में 'निषाद' आता है.अंतिम सूर और अंतिम व्यक्ति 'निषाद' का विषाद व्यक्त किया है कवि ने,यह भी उनकी द्रष्टितीक्ष्णता का परिचायक है.
मेरी एक ग़ज़ल 'ए छेल्लो उभेलो (वह आख़री खडा)' के एक शेर में 'सच सच बताना,सही बात करना,कई थियरी छे जे एने फले छे?'ऐसा प्रश्न समाज के अंतिम छोर पर रहे व्यक्ति के सन्दर्भ में मैंने पूछा है,यही बात रीति फर्क से,स्पष्टता से और सही तौर से मानव समाज के विकास के पायदान के टोली युग,दास युग,राजयुग,सामंत युग,प्रजातंत्र,पूंजीवाद.समाजवाद - फिर नवसंस्थानवादी चरित्रवाला,किन्तु मार्क्स के सिद्धांतो में महामंदी और अन्य अंतर्विरोधों के हल ढूंढने प्रयासरत पूंजीवाद जैसे सब पायदान टूट गए हैं,ऐसा कह के अंतिम व्यक्ति( निषाद ) के लाईलाज मर्ज की दवाई विहीनता की व्यथा गाई है प्रवीणभाई ने 'तेरे दर्द की दवाई नहीं' कविता में(पृ.७०).विचारधारा के ह्रास के रूप में वर्तमान समय की बहुत बड़ी समस्या की बात बिलकुल सरलता से,सादगी से कर दी है कवि ने.
लोकसाहित्य के अभ्यासी होने से उन्हें 'दलित बारहमासी'(पृ.१०१) लिखनेका विचार हुआ.लोकसाहित्य के 'बारहमासी' जैसे काव्य्प्रकारों का और प्रतिगामी मूल्यवाले घटकों का दलितों के द्रष्टिबिंदु से उपयोग हो सकता है कि नहीं इस दिशा में खोज का उन्हों ने आरम्भ किया है.
'व्यक्त ईश्वर (पृ..८५) में मंसूर के अनहलक,शंकर के अहं ब्रह्मास्मि,बुद्ध के अप्प डिपो भव की गूंज सुनाई देती है.
कवि ने 'निरीश्वरवादी मैं,फिर भी ...' कहकर निरीश्वरवादी के रूप में अपनी पहचान दी है और पहचाननेवाले भी उन्हें निरीश्वरवादी के रूप में पहचानते हैं.किन्तु स्वयम निरीश्वरवादी होने के बावजूद कई किस्म की विटन्बणा,विपत्ति या तनावों के बिच जनसामान्य की अनिवार्य जीवनतत्व के रूप में भगवान् या ऐसे कोई SUPERNATURAL ELEMENT  की जरुरत को जस्टीफाई कर सकते है 'चिन्तक'(पृ.२८) और 'रेशनालिस्ट'(पृ.१०९) कृतिओं में,जिससे ज्ञात होता है कि वे अन्यों की तरह धर्म को यांत्रिक रूप में (MECHANICALLY)  नहीं देख्ते हैं.खुद जैसे आस्थावादी हों ऐसे रीति में 'सिर्फ इन्सान को ही दिये/जाति के भेदभाव/और तरह तरह के भगवान्......फट रे बुरे भगवान्' कहकर दुनिया बनानेवाले को कोसते हैं.    
'धन्य हो,धन्य हो' (पृ.५८-६०) में उन्हों ने पुराणों में जिनका असुर नामकरण और निरूपण कर के जिन्हें अन्याय किया गया है ऐसे यशस्वी दानव और अन्य उपेक्षित पात्र सहित सयाजी-शाहूजी,गांधी और अंतिम चरण में अम्बेडकर की प्रशस्ति की है.रसदर्शन के साथ चर्चा और सार ग्रहण करना है इसलिए यहाँ पर रुकता हूँ और 'निषाद' की कविताओं के सन्दर्भ में आख़री मुद्दे की चर्चा पर आता हूँ.

पहले कहा गया है ऐसे एक वक्ताने प्रवीणभाईकी पहले दौर में लिखी गई एक कविता पढ़कर 'निषाद' में ऐसे आक्रोश की न्यूनता है ऐसा कहकर निराशा व्यक्त की थी.
उस वक्ताने उद्धृत की हुई कविता प्रवीनभाई ने जवानी में (१९७९-८०) में लिखी थी.इसके बाद 'निषाद' आते आते तो समय कितना बह गया है ! (२०१२-१३) गुजरात के समाज जीवन में से  और राजनीति में से कुछ तत्व अद्रश्य हो चुके हैं और कई नए तत्व उभर आये है, जिन में कुछ तो विघातक भी हैं.परिपक्व उम्र होते ही व्यक्ति में समभाव,समता,सहिष्णुता,सदभाव,समद्रष्टि बढ़ते हैं.आक्रोशसभर कविताओं का भी एक दिमागी माहौल होता है.उम्र बढ़ते ही अनुभवों के साथ साथ दिमागी माहौल और जीवनद्रष्टि में भी बदलाव आता है.समाज के  infrastructural   माहौल और superstructural माहौल में हुए बदलाव को भी ध्यान में लेना चाहिए.ऐसे कारणवश भी आक्रोश से शुरू हुई काव्य प्रवृति की निरंतर प्रस्तुति आक्रोश न हो यह मुम्किन है.'मेरी वीणा को करुण राग विशेष पसंद है' ऐसा नरसिंह राव दिवेटिया ने कहा था.वैसे ही मेरे जैसा कवि 'आक्रोश है मनभावन राग मेरा' ऐसा कबूल करने के बाद भी अन्य राग गाये तो यह साहजिक है.वैविध्य के खातिर भी वह आक्रोश नई पीढी को या अपने अन्य समकालीनो को सौंप कर  वह अन्य राग की तरफ जाए तो वह भी सहज है.निरंतर आक्रोश का  राग गाकर खुद का ही पुनरावर्तन कब तक करते रहें ?इसलिए मैं ने दलित परिप्रेक्ष्य से प्रेम कविताएँ लिखी.अन्य ऐसी कविताओं को या आक्रोश के अलावा अन्य भाव की अन्य कविओं की कविताओं को भले ही कोई समीक्षक neoromenticism  का लेबल लगाए.पर ऐसी कविताओं की समीक्षा न्यायद्रष्टि से होनी चाहिए.प्रवीणभाई की 'निषाद'के काव्यों का मूल्यांकन भी न्यायद्रष्टि से होना चाहिए.'निषाद' के काव्यों में जो है उसकी महिमा करने के बजाय उस में पहले जैसा आक्रोश नहीं है ऐसा कह कर समूचे संग्रह को ख़ारिज कर देने में कोई न्याय संगतता नहीं है.
मुझे तो प्रश्न यह भी होतां है कि आक्रोश को ही पकड़ कर हम क्यों बैठे रहें  ? मुझे तो प्रश्न यह भी होता है कि कोई सवर्ण कन्या और कोई दलित युवक के संवनन का चित्रण करती हुई Fanny Hack About Jones  जैसी कोई erotica भी क्यों न हो दलित साहित्य में ?विपथगमन का मुद्दा ही कहाँ बनता है इस में ?
इसके अलावा प्रश्नों का प्रश्न  यह है कि क्या आक्रोश ही दलित कविता को दलित कविता बनाता है?जिस में आक्रोश हो वही सच्ची या बेहतर दलित कविता और जिस में आक्रोश न हो,रौद्र रस के अलावा और रस हो वह झूठी या सुपरफिशियल या कमतर दलित कविता ऐसा तो कोई समीकरण हो ही नहीं सकता.आक्रोश.जोश.एंगर,स्पिरिट,टेम्परामेंट न हो तो दलित कविता लिखने का अर्थ ही क्या है ऐसा प्रश्न बार बार कर के कुछ लोग एक आत्यंतिक मनोभूमिका पर पहुँच गए है और पुरे संग्रह को अन्याय कर बैठे हैं.
कुछ लोग ही born protestant होते हैं. protest(प्रतिरोध)  उन में जन्मजात होता है.उन्हों ने व्यक्त किया हुआ आक्रोश अपीलिंग और उपयुक्त लगता है.उनके अलावा और लोग कविता में आक्रोश लाते है तो वह कृतक,बनावटी लगता है और अखरता है.दलित कविता में अनुकरण की वजह से ऐसा भी हुआ है.
यह तो हमारे पर के दमन,शोषण,अत्याचार,धिक्कार,तिरस्कार,बहिष्कार,अन्याय का साहित्य है इसलिए इस में रस ढूंढना बेकार है ऐसा एक बडकमबहादुर ने किया हुआ  तर्क तो साहित्य पदार्थ के प्रति उसका  घोर अज्ञान प्रदर्शित करता है,यह तो साहित्य के अभ्यासी भी स्वीकार करेंगें.रणभूमि में होते युद्ध और सांस्कृतिक-साहित्यिक महायुद्ध के फर्क को हमें परखना होगा.उदगारस्तरिय पड्कार और सूक्ष्मस्तरिय साहित्य कृति के बीच रहे फर्क को भी हमें परखना होगा.दलित  साहित्य आक्रोश को ही पकड़े रहे,आक्रोश से आक्रोश तक चक्राकार गति में घूमता रहे इस में कोई विकास नहीं है.'आक्रोश' से शुर्रू हुआ दलित साहित्य बिलकुल अस्वीकार से लेकर आज आंशिक स्वीकार की कक्षा तक आकर खडा है तब,साढे तीन दशक की मजल काट चुका है तब,दलित जीवन का दर्शन उसकी सूक्ष्मता के साथ अखिलाई में,समग्रता में प्रकट होना चाहिए.उसकी गहराई और व्यापकता दोनों बढ़ने चाहिए.कोई समीक्षक दलित साहित्य के बारे में नुक्तेचीनी करे तो उसे 'दलित द्वेषी' का लेबल लगाने के अपरिपक्व प्रयासों से दलित साहित्य को बचना होगा.
ऐसे सब कारणों से दलित साहित्य में वैविध्य की,खुलेपन की हिमायत कर के मैं  पुनरोच्चार करता हूँ कि सिर्फ और सिर्फ आक्रोश दलित साहित्य को monotonous बना देगा.चाहे आक्रोश न्यून हो,पर यह भी दलित कविता है इसलिए प्रवीण गढवी के 'निषाद' का निनाद फिज़ा में ज्यादा से ज्यादा फैले ऐसी अभ्यर्थना.
  
भाग ३  'बेयोनेट'  से  'निषाद'  तक की कविता : निष्कर्ष 

१.    प्रवीण गढवी की कविता तर्क आधारित,तर्कसंगत विचारोर्मि की कविता  है.
२.    प्रवीण गढवी की कविता व्यापक और वैविध्यपूर्ण भावविश्व की कविता है.
३.    प्रवीण गढवी की कविता परिपक्व प्रौढी की कविता है.
४.    प्रवीण गढवी की कविता कम ख्यात ईतिहास के मार्क्सिस्ट अर्थघटन और      पुनरव्याख्या की कविता है.
५.    प्रवीण गढ़वी की कविता मार्क्स,अम्बेडकर और गाँधी के प्रति ख़ास किस्म के   अनुराग और सम्मान की कविता है.

प्रवीणभाई की कविता में उक्त पांच लक्षण व्याप्त हैं,जो कुछेक अपवादों के सिवा अन्य दलित कविओं की कविता में बहुत कम,शायद ही देखने को मिलते हैं.यह पांच लक्षण प्रवीणभाई की कविता को अन्य दलित कविओं की कविता से अलग करते हैं और इससे भी आगे बढ़कर कहूँ तो अन्य समग्र गुजराती कविओं की कविता से अलग दिखाते हैं . कविता के नीचे नाम लिखा न हो तो भी कविता पढ़ते ही ख्याल आ जाए कि यह प्रवीण भाई की कविता है ऐसी प्रवीण गढवी ब्राण्ड पोएट्री की निजी आभा वे गुजराती कविता क्षेत्र में उभार सके है.

प्रवीणभाई विवेकबुद्धीवादी हैं,पक्के रेशनालिस्ट हैं.उन को पहले विचार आता है और वह भी तर्कसंगत विचार,उस विचार को वे मन में घुमड़ने देते हैं,उस विचार के आधार में वे अर्थशास्त्रीय,समाजशास्त्रीय,नृवंशशास्त्रीय,सांस्कृतिक,पौराणिक,ऐतिहासिक बातों को,घटनाओं को और तथ्यों को गूंथते हैं,उन का मन इस तमाम सामग्री को मथकर इसका रसात्मक भाव में रूपान्तर करता है और जन्म लेती है एक कविता.इसलिए ही 'बाबासाहब का यह पुतला फटे,इसका प्रसाद घर घर बंटे' जैसी इररेशनल भावना उनकी कविता में नहीं होती.शुद्ध तर्क की बुनियाद पर खड़ा होता है विचार,इसका होता है उर्मि में रूपान्तर और फिर जन्म लेती है प्रवीणभाई की कविता..इसलिए ही काल्पनिक देवी के सामने एक उंगली हिलाकर,सर हिलाकर धूनी रमाता तांत्रिक या एकतारा लेकर भजन गाता हुआ भजनीक  भी दलित कविता लिखता हो ऐसे वदतोव्याघात जैसे इस विचित्र समय में प्रवीणभाईकी तर्कसंगत विचारोर्मिकी महिमा जितनी करें उतनी कम है,उपरान्त,उनकी कविता बहुश्रुतता की परिचायक है ऐसे निष्कर्ष पर आये बगैर नहीं रहा जाता.कई सारे शास्त्रों का वाचन किया हो,पाचन किया हो,तभी जन्म लेती है प्रवीण गढवी ब्राण्ड कविता.हालांकि,तर्कसंगत विचारोर्मि होने के कारण भावना का जिस में प्राबल्य होता हैं ऐसे गीत या गज़ल वे नहीं लिख पाए हैं.

दलित कविता के ऋतुपत्र 'आक्रोश से जो दलित साहित्य क्षेत्र में निरंतर कार्यमग्न हैं  ऐसे प्रवीणभाई की शुरुआती कविता आक्रोशसभर थी.आक्रोश और पीड़ा के बिंदु से शुरुआत की थी उन्हों ने दलित कविता लिखने की,पर बाद में उनका भावविश्व निरंतर खुलता ही रहा है,विस्तृत होता रहा है.कुछेक कवि जो आज ही उसी बिंदु पर अटके हुए हैं  और परिणामस्वरुप अपनी ही रचनारीति की,शब्दावली की,विषयवस्तु की और भावनागत आधार की  निरंतर पुनरावृति करते रहे हैं.,ऐसा प्रवीणभाई में नहीं हुआ है.रसवैविध्य,भाववैविध्य,विषयवैविध्य और शब्दावली का वैविध्य उनकी कविता में दिखता रहा है.स्वयम की पुनरावृति नहीं की है प्रवीणभाई ने.कामशास्त्र से लेकर अर्थशास्त्र तक के विषयों को और उपनिषदकाल से उदारीकरणकाल तक के समय को उन्हों ने अपने वैविध्य की सीमा में ले लिया है.व्यापक देशकाल और विषय को लेकर उनकी कविता ने उड़ान भरी है.इसलिए ही एकविधता,एकतानता,एकसूरिलेपन से उनकी कविता बच गई है.

प्रवीणभाई की कविता शुरू से ही परिपक्व है और इसलिए ही 'शास्त्र सन्यास' की पूर्व  शरत में वे 'खलिहान का आधा हिस्सा' और सामाजिक एकरसता मांग ने की परिपक्वता वे दलित कविता के प्रारम्भ में ही दिखा चुके है.आज पूरे भक्ति युग को और संत साहित्य को दलित साहित्य के सर पर पटकने की अर्धदग्धता,संदिग्धता वैचारिक स्पष्टता के अभाव में चलती है तब,कोई विचारधारा व्यवहार के स्तर पर कामियाब नहीं रही है ऐसे निष्कर्षों के बीच दलित साहित्यकारों ने विचारधारा का दिवालियापन दिखाया है ऐसे माहौल में उंगली के आधार पर गिन पायें इतने ही दलित साहित्यकार हैं कि जिन में वैचारिक स्पष्टता है.प्रवीणभाई उनमें से एक हैं.'बेयोनेट' से ले कर 'निषाद' तक के उन के सफ़र में उनकी विकसित परिपक्वता दिखाई देती है.कोई संदिग्धता या विचलन उनकी कविता में दिखाई नहीं देते.लगता है कि कवि के मन में कोई उलझन नहीं है,इसलिए उनकी कविता में स्पष्ट कथयित्व की ताकत देखने को मिलती है.

प्रवीणभाई की कविता में इतिहास निरंतर बहता रहा है.विश्व इतिहास से ले कर भारत और गुजरात के इतिहास को उन्हों ने उपयोग में लिया है.वे इतिहास का निरूपण कर के उसका अर्थघटन करते रहे हैं और जरूरत पड़ी वहां इतिहास को पुनरव्याख्यायित भी करते रहे हैं.इतिहास को अपनी कविता की सामग्री इतनी हद तक बनानेवाले,इतिहासद्रष्टि से कविता लिखनेवाले प्रवीणभाई पूरे गुजराती कविता क्षेत्र में एक और अनन्य कवि हैं.
प्रवीणभाई के लिए तीनों विभूति आदरणीय हैं - मार्क्स भी,अम्बेडकर भी और गांधी भी.तीनों उनकी कविता के विषय बनते रहे हैं.जिस में जहां तक पूना करार,ग्राम स्वराज,ब्रह्मचर्य और नशाबंदी का सवाल है,मैं  गांधीजी के खिलाफ़ रहा हूँ.( हिन्द स्वराज पांच बार पढ़ने के बाद सभी बार मैं ने अस्वीकार में सर घुमाया है) बाकी सब मुद्दों में गाँधी मेरे लिए आदरणीय हैं और भारतीय समाज को समजने के लिए अम्बेडकर,मार्क्स और गाँधी- तीनों को उपयोग में लेने होंगे ऐसा मैं मानता हूँ.दलित साहित्यकार होना याने पूर्ण रूप से गाँधी के खिलाफ़ होना ऐसा कोई साधारणीकरण स्वस्थ समीकरण नहीं है.गाँधी काव्य लिखते वक्त गांधीवाद का ही प्रचार करना प्रवीणभाई को भी अभिप्रेत नहीं होगा.जाति के प्रश्न को गाँधी सही माने में समज ही नहीं पाए थे ऐसा कहने के बाद भी छूआछूत को हटाने के लिए गांधीजी और परीक्षित लाल मजमुदार,रविशंकर महाराज,अमृत लाल ठक्कर,जुगतराम दवे जैसे कई धुनी रमा के बैठ जानेवाले गांधीजी के अनुयायीओं के प्रदान को बिना भूले योग्य परिप्रक्ष्य में देखना होगा.छूआछूत के मुद्दे को गांधीजी से पहले बहुत ही कम सुधारकों ने अजेंडा में रखा था.आझादी के अजेंडा में अस्पृश्यता के प्रश्न को लाने का उनका प्रदान कैसे भूला सकते हैं ?दलित,वंचित,समाज के आख़री छोर पर रहे आम में भी आम आदमी के प्रश्न को लेकर गांधी के प्रदान की  प्रवीण गढवी या  और कोई कवि प्रशंसा करें तो उसका भी दलित साहित्य की बहुविधता का एक हिस्सा मानकर स्वीकार करने की ,समरसतावादीओं द्वारा लिखे गए दलित साहित्य के प्रति रखते हैं ऐसी, उदारता हम में होनी चाहिए.साथ में यह भी समजना होगा कि अधिकांश रूप से दलितेतर साहित्य लिखनेवाले मित्रों के स्वीकार से या समूचे दलित साहित्य के प्रतीकात्मक स्वीकार (टोकनीज़म) से दलित साहित्य के अच्छे दिन नहीं आयेंगे.यहाँ प्रस्तुत मुद्दा यही कि प्रवीणभाई मेरी तरह गांधी विरुद्ध मार्क्स या गाँधी विरुद्ध अम्बेडकर के नजरिये से नहीं,किन्तु गांधी और मार्क्स और आम्बेडकर- तीनों को मिलाकर द्रश्य देखते हैं.इसलिए ही उन्हें मार्क्स,गाँधी और आम्बेडकर तीनों को काव्यांजली स्फुरित होती है.गांधीवादीओं से जैसे भूलावे में नहीं पड़ना चाहिए,उन्हें भी परखना चाहिए यह सच है, किन्तु गांधी प्रशस्ति की १० कविताओं में गांधीवाद का प्रचार देखना यह भी वक्र्द्रष्टि का अतिव्याप्तिदोष है और साथ साथ असहिष्णुता भी.दलित साहित्य को और दलित आन्दोलन को सवाई दलित ऐसे प्रवीणभाई जैसे साथीओं की जरुरत है.ऐसे साथीओं के प्रति सहिष्णुता रखेंगे तो ही दलित साहित्य और दलित आन्दोलन दोनों स्वस्थतापूर्वक आगे बढ़ने पाएंगे.      

औरत ही औरत की शत्रु




                  महामनीषी मार्क्स का विधान!
              ' मानव सोचता है सदा वर्गीय "
              पुण्यभूमि भारत में असत्य
              वह विधान.
              यहाँ माता को पुत्र ही अति प्रिय,
              न पुत्री.
              पुत्र को दूध बादाम,पुत्री को छास.
              पुत्र को ट्यूशन,पुत्री को झाडू-पोछा,बर्तन
                   पुत्र को सर्वस्व अर्पण,पुत्री को आशीर्वाद.
              सास ही दहेज मांगे
              ताने मार कर परेशान करे
              ज़िंदा जलाए
              गृहवधु को !
              यहाँ माँ ही करे
              पुत्रीकी भ्रूणहत्या.                   
              पुण्यभूमि भारत में
              यही  
              सत्य विधान-मार्क्स विधान असत्य.

युद्ध के दाग




                  हरेभरे पहाड़
              नीली नीली जल भरी नदियाँ
              रहोडोडेन्डरेन फूले से गुंथे
              योरप सुन्दारी के रूप पर कहीं न दीखे
              युद्ध के दाग.
              युद्ध के रक्तसे लथबथ घांव.
              स्वच्छ बड़े मार्ग 
              चमकीली भव्य इमारतें
              लाल छापरियाँ
              शिल्पमंडित फव्वारे उछालते चौक
              विश्वास चुगते कपोत
              लगे नहीं कि कभी यहाँ खेला गया था
              भीषण महायुद्ध
              चार करोड़ मानव के अस्थि      
              पिघले पड़े हैं
              इन हरीभरी पहाड़ियां और 
              गेहूं-सरसों के पीले पीले खेतोकी मिट्टी तले,
              आसमान से आग बरसाते बम के धमाके,
              विह्वल औरतें,मासूम बच्चों की चीखें
              नील सुन्दर झील जैसे आकाश में
              समां गए हैं.
              राज हंस जैसे श्वेत मेघ
              तैर रहे हैं अलसभर
              कहीं नहीं जली टूटी इमारतें
              टूटे हुए
              चमकदमक भरे डिपार्टमेन्टल स्टोर्स और
              मला में टहल रहीं हैं
              क्रिसेन्थियम फूल जैसी गोरी कन्याएं.
              कहीं नहीं हिटलर-मुसोलिनी के अवशेष
              कहीं नहीं उनकी दहाड़ से
              कांच की खिडकियों पर पडी दरारें
              युद्ध के दाग मिट गए हैं
              युद्ध के घांव मिट गए हैं
              रूपसी योरोपा की देह पर से
              अब ओ चिर यौवना रूपसी सुन्दरी
              युरोपा,
              दिल से भी मिटा दे
              युद्ध के दाग.

आदर्श समाज




              चींटी,चींटे,दीमक
              सुग्रथित समाज बना सके.
              मानव
              दस हजार साल बाद भी असमंजस में.
              आदर्श समाज की
              खोज अब भी अधूरी !

कश्मीर



             
               स्वप्न सम
            कश्मीर को किसने बना दिया
            दु:स्वप्न सम ?

मुश्किल




              मार्क्स गांधी विचार
              पसंद आये ऐसे मीठे,
              भोर के सुहाने सपने जैसे
              मुलायम और सुन्दर,
              दिवा स्वप्न जैसे रमणीय.
              काव्य के शब्द जैसे मननीय
              किन्तु
              धरती पर उतारने मुश्किल!

कामगार




                फेक्टरी में हों तब
                हम सब कामगार.
                साथ में टिफिन खाएं तब
                हम सब कामगार.
                लाल झंडा लहराकर नारें लगाएं तब
                हम सब कामगार.
                फेक्टरी से निकल कर
                मैं सोसायटी में जाता हूँ,
                वह मोहल्ले में जाता है,
                वह चाली में जाता है.
                मैं कमीज़ चढ़ाकर जनेऊ कान पर चढ़ाता हूँ,
                वह घर जाकर मुल्ला टोपी सर पर चढाकर
                नमाज अदा करने जाता है.
                वह टूवाल लपेटकर थैला लेने जाता है.
                घर जाते ही
                मैं ब्राह्मण बन जाता हू,
                वह मुसलमान हो जाता है,
                वह दलित हो जाता है.
                फेक्टरी में हों
                तब तक ही
                हम सब कामगार.